अर्श रोग विवेचना
अर्श रोग विवेचना, गंन्तांग से आगे,,,,, अर्श के भेद, अर्श दो प्रकार का होता है। 1,,सहज।,,वंश परम्परा से प्राप्त होता है इसे आधुनिक विज्ञान मेंCongenital कहते हैं, 2,,जन्मोत्तर,, यह जन्म के बाद होता है। पुनः दो प्रकार,, 1, शुष्क,,जिस वादी बवासीर कहते हैं। सामान्यतः यह वात और कफ की अधिकता वाले। 2 परिस्रावी,, इस में स्राव होता है। रक्त और पित्त के आधिकता वाले होते हैं। पुनः दो प्रकार,,, 1 दृश्य या बाह्हा यह गुदा के बाहर होते हैं। 2 अदृश्य या आभ्यान्तर,, यह गुदा के अन्दर स्थित होते हैं। पुनः अर्श पांच प्रकार का,, 1 वातज यह वात प्रधान होता है यह उपरोक्त भेद के अनुसार सहज और जन्मोत्तर, शुष्क एवं बाह्य होते हैं। 2 पित्तज ,, इनमें पित्त की प्रधानता होती है, तथा सहज और जन्मोत्तर परिस्रावी,बाह्य एवं आभ्यान्तर प्रकार के होते हैं। 3 कफज। इनमें कफ की प्रधानता होती है तथा सहज और जन्मोत्तर शुष्क एवं अल्पस्रावी होते हैं, बाह्य एवं आभ्यान्तरिक होते हैं। 4 द्वन्दज जिनमें दो दोषो के कारण व लक्षण मिलते हैं, यह 6 प्रकार के वात पित्त,वात कफ, पित्त कफ, रक्त पित्त, रक्त कफ, रक्त के कारण होते हैं, 5 सन्निपातज,, जिनमें तीनों दोषों के कारण ब लक्षण मिलते हैं। 6 रक्तज,,, जिनमें रक्त का स्राव होता है। अर्श रोग की साधयासाध्यता,,बाहरी वलि अर्थात संवरणी spincternal को दूषित कर उत्तपन्न हुए अर्श जिसमें एक दोष की ही अधिष्ठाता हो और अधिक पुराने न हो अर्थात एक वर्ष के अन्दर ही रोग उत्पन्न हुआ हो वह सुखसाध्य होता है। कृच्छ्रसाध्य,, विसर्जनी नामक द्वितीय वली को दूषित कर अत्तपंंन्न हुए अर्श और एक वर्ष से अधिक जिसको उत्तपन्न हुए समय हो गया हो वह कृच्छ्रसाध्य होते हैं। आगे पढ़े,,,,,,
खूनी बवासीर :- खूनी बवासीर में किसी प्रकार की तकलीफ नहीं होती है केवल खून आता है। पहले पखाने में लगके, फिर टपक के, फिर पिचकारी की तरह से सिर्फ खून आने लगता है। इसके अन्दर मस्सा होता है। जो कि अन्दर की तरफ होता है फिर बाद में बाहर आने लगता है। टट्टी के बाद अपने से अन्दर चला जाता है। पुराना होने पर बाहर आने पर हाथ से दबाने पर ही अन्दर जाता है। आखिरी स्टेज में हाथ से दबाने पर भी अन्दर नहीं जाता है। 2-बादी बवासीर :- बादी बवासीर रहने पर पेट खराब रहता है। कब्ज बना रहता है। गैस बनती है। बवासीर की वजह से पेट बराबर खराब रहता है। न कि पेट गड़बड़ की वजह से बवासीर होती है। इसमें जलन, दर्द, खुजली, शरीर में बेचैनी, काम में मन न लगना इत्यादि। टट्टी कड़ी होने पर इसमें खून भी आ सकता है। इसमें मस्सा अन्दर होता है। मस्सा अन्दर होने की वजह से पखाने का रास्ता छोटा पड़ता है और चुनन फट जाती है और वहाँ घाव हो जाता है उसे डाक्टर अपनी भाषा में फिशर भी कहते हें। जिससे असहाय जलन और पीड़ा होती है। बवासीर बहुत पुराना होने पर भगन्दर हो जाता है। जिसे अँग्रेजी में फिस्टुला कहते हें। फिस्टुला प्रकार का होता है। भगन्दर में पखाने के रास्ते के बगल से एक छेद हो जाता है जो पखाने की नली में चला जाता है। और फोड़े की शक्ल में फटता, बहता और सूखता रहता है। कुछ दिन बाद इसी रास्ते से पखाना भी आने लगता है। बवासीर, भगन्दर की आखिरी स्टेज होने पर यह केंसर का रूप ले लेता है। जिसको रिक्टम कैंसर कहते हें। जो कि जानलेवा साबित होता है।
Nice Information...... एक साल के बाद वो रोग 3rd या 4th Grade मे चला जाता है और तब क्षार सूत्र सबसे सटीक समाधान होता है.
बहुत ही सुंदर विवरण अर्श के विषय में धन्यवाद साझा करने के लिए डॉ डी पी सिंघजी
Thanks for the detailed description.
जानकारी पुर्ण
please medicin provade cogh arse
Nice information
Bahut bahut dhanyawad information dene ke liye doctor
Thanks
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